Friday 27 January 2017

एक विद्वान् ब्राह्मण अपने बाल सखा कृष्ण से छुपाकर चने कैसे सकता है ???

मेरे मन में सुदामा के सम्बन्ध में एक बड़ी शंका थी कि एक विद्वान् ब्राह्मण अपने बाल सखा कृष्ण से छुपाकर चने कैसे खा सकता है ???
आज भागवत पर चर्चा करते हुए गुरुदेवजी ने इस शंका का निराकरण किया। इस चर्चा को आपसे साझा करना जरुरी समझता हूँ ताकि आप भी समाज में फैली इस भ्रान्ति को दूर कर सकें।
गुरुदेव बताते हैं सुदामा की दरिद्रता, और चने की चोरी के पीछे एक बहुत ही रोचक और त्याग-पूर्ण कथा है- एक अत्यंत गरीब निर्धन बुढ़िया भिक्षा माँग कर जीवन यापन करती थी। एक समय ऐसा आया कि पाँच दिन तक उसे भिक्षा नही मिली वह प्रति दिन पानी पीकर भगवान का नाम लेकर सो जाती थी। छठवें दिन उसे भिक्षा में दो मुट्ठी चने मिले। कुटिया पे पहुँचते-पहुँचते उसे रात हो गयी। बुढ़िया ने सोंचा अब ये चने रात मे नही, प्रात:काल वासुदेव को भोग लगाकर खाऊँगी ।
यह सोंचकर उसने चनों को कपडे में बाँधकर रख दिए और वासुदेव का नाम जपते-जपते सो गयी। बुढ़िया के सोने के बाद कुछ चोर चोरी करने के लिए उसकी कुटिया मे आ गये।
चोरों ने चनों की पोटली देख कर समझा इसमे सोने के सिक्के हैं अतः उसे उठा लिया। चोरो की आहट सुनकर बुढ़िया जाग गयी और शोर मचाने लगी ।शोर-शराबा सुनकर गाँव के सारे लोग चोरों को पकडने के लिए दौडे। चने की पोटली लेकर भागे चोर पकडे जाने के डर से संदीपन मुनि के आश्रम में छिप गये। इसी संदीपन मुनि के आश्रम में भगवान श्री कृष्ण और सुदामा शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। चोरों की आहट सुनकर गुरुमाता को लगा की कोई आश्रम के अन्दर आया है गुरुमाता ने पुकारा- कौन है ?? गुरुमाता को अपनी ओर आता देख चोर चने की पोटली छोड़कर वहां से भाग गये। 
इधर भूख से व्याकुल बुढ़िया ने जब जाना ! कि उसकी चने की पोटली चोर उठा ले गए हैं तो उसने श्राप दे दिया- " मुझ दीनहीन असहाय के चने जो भी खायेगा वह दरिद्र हो जायेगा " । 
उधर प्रात:काल आश्रम में झाडू लगाते समय गुरुमाता को वही चने की पोटली मिली। गुरु माता ने पोटली खोल के देखी तो उसमे चने थे। उसी समय सुदामा जी और श्री कृष्ण जंगल से लकडी लाने जा रहे थे।
गुरुमाता ने वह चने की पोटली सुदामा को देते हुए कहा बेटा ! जब भूख लगे तो दोनो यह चने खा लेना ।
सुदामा जन्मजात ब्रह्मज्ञानी थे। उन्होंने ज्यों ही चने की पोटली हाथ मे ली, सारा रहस्य जान गए। 
सुदामा ने सोचा- गुरुमाता ने कहा है यह चने दोनो लोग बराबर बाँट के खाना, लेकिन ये चने अगर मैने त्रिभुवनपति श्री कृष्ण को खिला दिये तो मेरे प्रभु के साथ साथ तीनो लोक दरिद्र हो जाएंगे। नही-नही मै ऐसा नही होने दूँगा। मेरे जीवित रहते मेरे प्रभु दरिद्र हो जायें मै ऐसा कदापि नही करुँगा। मै ये चने स्वयं खा लूँगा लेकिन कृष्ण को नही खाने दूँगा और सुदामा ने कृष्ण से छुपाकर सारे चने खुद खा लिए। अभिशापित चने खाकर सुदामा ने स्वयं दरिद्रता ओढ़ ली लेकिन अपने मित्र श्री कृष्ण को बचा लिया।
अद्वतीय त्याग का उदाहरण प्रस्तुत करने वाले सुदामा, चोरी-छुपे चने खाने का अपयश भी झेलें तो यह बहुत अन्याय है पर पूज्य गुरुदेव ने आज मन की इस गहन शंका का निवारण कर मन को हल्का कर दिया।
श्री गुरु चरणों में सत सत नमन

Tuesday 24 January 2017

अगर आप किसी को छोटा देख रहे हो, तो आप उसे; या तो "दूर" से देख रहे हो, या अपने "गुरुर" से देख रहे हो !

किसी राजा के पास एक बकरा था ।
एक बार उसने एलान किया की जो कोई
इस बकरे को जंगल में चराकर तृप्त करेगा
मैं उसे आधा राज्य दे दूंगा।
किंतु बकरे का पेट पूरा भरा है या नहीं
इसकी परीक्षा मैं खुद करूँगा।
इस एलान को सुनकर एक मनुष्य राजा के पास आकर
कहने लगा कि बकरा चराना कोई बड़ी बात नहीं है।
वह बकरे को लेकर जंगल में गया और सारे दिन
उसे घास चराता रहा,, शाम तक उसने बकरे को खूब
घास खिलाई और फिर सोचा की सारे दिन
इसने इतनी घास खाई है अब तो इसका पेट भर गया
होगा तो अब इसको राजा के पास ले चलूँ,,
बकरे के साथ वह राजा के पास गया,,
राजा ने थोड़ी सी हरी घास बकरे के सामने रखी
तो बकरा उसे खाने लगा।
इस पर राजा ने उस मनुष्य से कहा की तूने उसे पेट भर
खिलाया ही नहीं वर्ना वह घास क्यों खाने लगता।
बहुत जनो ने बकरे का पेट भरने का प्रयत्न किया
किंतु ज्यों ही दरबार में उसके सामने घास डाली जाती तो
वह फिर से खाने लगता।
एक विद्वान् ने सोचा इस एलान का कोई तो
रहस्य है, तत्व है,, मैं युक्ति से काम लूँगा,,
वह बकरे को चराने के लिए ले गया।
जब भी बकरा घास खाने के लिए जाता तो वह उसे
लकड़ी से मारता,,
सारे दिन में ऐसा कई बार हुआ
अंत में बकरे ने सोचा की यदि
मैं घास खाने का प्रयत्न करूँगा तो मार खानी पड़ेगी।
शाम को वह बकरे को लेकर राजदरबार में लौटा,
,
बकरे को तो उसने बिलकुल घास नहीं खिलाई थी
फिर भी राजा से कहा मैंने इसको भरपेट खिलाया है।
अत: यह अब बिलकुल घास नहीं खायेगा,,
लो कर लीजिये परीक्षा....
राजा ने घास डाली लेकिन उस बकरे ने उसे खाया तो
क्या देखा और सूंघा तक नहीं....
बकरे के मन में यह बात बैठ गयी थी कि अगर
घास खाऊंगा तो मार पड़ेगी....
अत: उसने घास नहीं खाई....
मित्रों " यह बकरा हमारा मन ही है "
बकरे को घास चराने ले जाने वाला " आत्मा" है।
राजा "परमात्मा" है।
मन को मारो नहीं,,, मन पर अंकुश रखो....
मन सुधरेगा तो जीवन भी सुधरेगा।
अतः मन को विवेक रूपी लकड़ी से रोज पीटो..🙏
कमाई छोटी या बड़ी हो सकती है...
पर रोटी की साईज़ लगभग सब घर में
एक जैसी ही होती है...!!
👌 बहुत सुन्दर सन्देश 👌-::
अगर आप किसी को छोटा देख रहे हो, तो आप उसे;
या तो "दूर" से देख रहे हो,
या अपने "गुरुर" से देख रहे हो !
🙏🚩जय श्री कृष्ण🚩🙏

Wednesday 18 January 2017

जीवन वोध में जीना सीखो विरोध में नहीं

संत कहते हैं
जीवन वोध में जीना सीखो विरोध में नहीं, एक सुखप्रद जीवन के लिए इससे श्रेष्ठ कोई दूसरा उपाय नहीं हो सकता। जीवन अनिश्चित है और जीवन की अनिश्चितता का मतलब यह है कि यहाँ कहीं भी और कभी भी कुछ हो सकता है।
यहाँ पर आया प्रत्येक जीव बस कुछ दिनों का मेंहमान से ज्यादा कुछ नहीं है, इसीलिए जीवन को हंसी में जिओ, हिंसा में नहीं। चार दिन के इस जीवन को प्यार से जिओ, अत्याचार से नहीं।
जीवन जरुर आनंद के लिए ही है इसीलिए इसे मजाक बनाकर नहीं मजे से जिओ। इस दुनियां में बाँटकर जीना सीखो बंटकर नहीं। जीवन वीणा की तरह है, ढंग से बजाना आ जाए तो आनंद ही आनंद है।

Friday 13 January 2017

इस साल मकर संक्रांत‌ि पर है ये दुर्लभ संयोग, इन राशियों पर होगा इसका प्रभाव

साल की 12 संक्रांत‌ियों में से मकर संक्रांत‌ि का सबसे ज्यादा महत्व है क्योंक‌ि इस द‌िन सूर्य देव मकर राश‌ि में आते हैं और इसके साथ देवताओं का द‌िन शुरु हो जाता है। इसल‌िए मकर संक्रांत‌ि के द‌िन स्नान, दान और पूजन का बड़ा ही महत्व है। लेक‌िन इन सबसे ज्यादा महत्व है सूर्य देव का अपने पुत्र शन‌ि के घर में आना। इस साल मकर संक्रांत‌ि पर कुछ ऐसा संयोग बना है ज‌िससे सूर्य और शन‌ि दोनों को एक साथ खुश क‌िया जा सकता है और यह ऐसा संयोग है जो कई वर्षों के बाद बना है। दरअसल इस साल मकर संक्रांत‌ि 14 जनवरी को है क्योंक‌ि इस द‌िन सूर्य देव सुबह 7 बजकर 38 म‌िनट पर मकर राश‌ि में प्रवेश कर रहे हैं। संयोग की बात है क‌ि इस द‌िन शन‌िवार का द‌‌िन है। शन‌िवार के द‌िन मकर संक्रांत‌ि का होना एक दुर्लभ संयोग है। ज्योत‌िषशास्त्र में शन‌ि महाराज को मकर और कुंभ राश‌ि का स्वामी बताया गया है। ऐसे में शन‌िवार के द‌िन शन‌ि की राश‌ि में सूर्य का आगमन शन‌ि महाराज को अनुकूल और शुभ बनाने के ल‌िए बहुत ही अच्छा रहेगा।

इस साल 26 जनवरी से मकर राश‌ि वालों की साढ़ेसाती भी शुरु होने वाली है ऐसे में इनके ल‌िए शन‌ि को खुश करने का यह बहुत ही अच्छा मौका है। मकर राश‌ि के अलावा इस साल तुला, वृश्च‌िक, धनु राश‌ि वालों की भी साढ़ेसाती रहेगी और मेष, वृष, स‌िंह एवं कन्या राश‌ि वालों को ढैय्या लगेगी। ऐसे में इन आठों राश‌ि वालों को इस मकर संक्रांत‌ि के मौके पर शन‌ि महाराज को खुश करने के ल‌िए कुछ आसान से उपाय जरूर करने चाह‌िए। ज‌िनकी शन‌ि की दशा चल रही है उन्हें भी यह उपाय करना चाह‌िए। मकर संक्रांत‌ि के द‌िन उड़द दाल में ख‌िचड़ी बनाकर दान करें और स्वयं भी भोजन करें।

शास्त्रों के अनुसार उत्तरायन देवताओं का दिन, तो दक्षिणायन देवताओं की रात्रि होती है। यह समय दान के लिए विशेष महत्व रखता है। इस समय पवित्र नदियों में किया गया स्नान सभी पापों से मुक्ति दिलवाने वाला.होता है। सूर्य जब उत्तरायन का होता है,उस समय किए गए समस्त शुभ कार्य विशेष लाभ देने वाले माने जाते हैं। यही वजह है कि जनवरी से लेकर जून के मध्य तक सूर्य उत्तरायन होता है, उस समय शुभ कार्यों के लिएके लिए मुहूर्त अधिक होते हैं। क्यों कहलाता है मकर संक्रांति हिंदू धर्म शास्त्रों के अनुसार संक्रांति का अर्थ होता है सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में जाना। अत: वह राशि जिसमें सूर्य प्रवेश करता है, संक्रान्ति की संज्ञा से विख्यात है।

14 जनवरी के दिन या इसके आसपास सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते हैं इसलिए इसे मकर संक्रांति कहा जाता है। मकर संक्रांति के दिन दान-पुण्य करने का विधान है, मान्यता है कि ऐसा करने से पितर प्रसन्न होते हैं और मनुष्य के पुण्य-कर्मों में वृद्धि होती है। हिन्दू धर्म के अनुसार संसार के दिखाए देने वाले देवों में से एक भगवान सूर्य की गति इस दिन उत्तरायण हो जाती है। मान्यता है कि सूर्य की दक्षिणायन गति नकारात्मकता का प्रतीक है और उत्तरायण गति सकारात्मकता का। गीता में यह बात कही गई है कि कि जो व्यक्ति उत्तरायण में शरीर का त्याग करता है, उसे मोक्ष प्राप्त होता है। मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी भागीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा उनसे मिली थीं। इसके अलावा महाभारत काल के भीष्म पितामह ने भी अपना देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति के पावन दिन का ही चयन किया था।

आध्यात्मिक महत्व होने के साथ इस पर्व को लोग प्रकृति से जोड़कर भी देखते हैं जहां रोशनी और ऊर्जा देने वाले भगवान सूर्य देव की पूजा होती है। मकर संक्रांति 2017 और शुभ मुहूर्त मकर संक्रांति का पर्व वर्ष 2017 में 14 जनवरी को मनाया जाएगा। संक्रांति के दिन पुण्य काल में दान देना, स्नान करना या श्राद्ध कार्य करना शुभ माना जाता है।

इस साल यह शुभ मुहूर्त 14 जनवरी को सुबह 7 बजकर 50 मिनट से लेकर शाम 05 बजकर 57 मिनट तक का है। मकर संक्रांति के व्रत की संक्षिप्त विधि का वर्णन भविष्यपुराण में मिलता है। इसके अनुसार सूर्य के उत्तरायण या दक्षिणायन के दिन संक्रांति व्रत करना चाहिए। संक्रांति के तिल को पानी में मिलाकार स्नान करना चाहिए, अगर संभव हो तो गंगा स्नान करना चाहिए। इसके बाद भगवान सूर्यदेव की पूजा-अर्चना करनी चाहिए। ऐसा करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। साथ ही संक्रांति के पुण्य अवसर पर अपने पितरों का ध्यान और उन्हें तर्पण अवश्य प्रदान करना चाहिए। मकर संक्रांति के दिन स्नान के बाद भगवान सूर्यदेव का स्मरण करना चाहिए।

जानिए क्यों लड़के के नाम के आगे-चिरंजीव तथा लडकी के नाम-के आगे आयुष्मति लिखा जाता है ?

चिरंजीव:

एक ब्राह्मण के कोई संतान नही थी, उसने महामाया की तपस्या की, माता जी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्राह्मण से बरदान माँगने को कहा:– ब्राह्मण ने बरदान में पुत्र माँगा।
यह भी पढ़े – भीष्म ने युधिष्ठिर को बताई थी लड़की के विवाह से जुड़ी ये खास बातें
माता ने कहा :– मेरे पास दो तरह के पुत्र हैं । पहला दस हजार वर्ष जिएेगा लेकिन महा मूर्ख होगा ।
दूसरा, पन्द्रह वर्ष (अल्पायु ) जिऐगा लेकिन महा विद्वान होगा ।
किस तरह का पुत्र चहिए । ब्राह्मण बोला माता मुझे दूसरा वाला पुत्र दे दो।
माता ने तथास्तु ! कहा ।
कुछ दिन बाद ब्राह्मणी ने पुत्र को जन्म दिया लालन- पालन किया धीरे-धीरे पाँच वर्ष बीत गये। माता का वह वरदान याद करके ब्राह्मणी ने ब्राह्मण से कहा पांच वर्ष बीत गये हैं, मेरा पुत्र अल्पायु है जिन आँखों ने लाल को बढते हुए देखा है, जिन आँखों में लाल की छवि बसी है अथाह प्रेम है वह आँखे लाल की मृत्यु कैसे देख पायेंगी कुछ भी करके मेरे लाल को बचालो ।
ब्राह्मण ने अपने पुत्र को विद्या ग्रहण करने के लिए काशी भेज दिया ।
दिन-रात दोनों पुत्र के वियोग में दुखी रहने लगे । धीरे-धीरे समय बीता पुत्र के मृत्यु का समय निकट आया ।
काशी के एक सेंठ ने अपनी पुत्री के साथ उस ब्राह्मण पुत्र का विवाह कर दिया ।
पति-पत्नी के मिलन की रात उसकी मृत्यु की रात थी ।
यमराज नाग रूप धारण कर उसके प्राण हरने के लिए आये। उसके पती को डस लिया पत्नी ने नाग को पकड के कमंडल में बंदकर दिया ।तब तक उसके पती की मृत्यु हो गयी ।
पत्नी महामाया की बहुत बडी भक्त थी वह अपने पती को जीवित करने के लिए माँ की आराधना करने लगी ।आराधना करते-करते एक माह बीत गया । पत्नी के सतीत्व के आगे श्रृष्टि में त्राहि-त्राहि मच गई।
यमराज कमंडल में बंद थे यम लोक की सारी गतविधियाँ रूक गईं ।
देवों ने माता से अनुरोध किया और कहा
-हे माता हम लोंगो ने यमराज को छुडाने की बहुत कोशिश की लेकिन छुडा नही पाये -हे! जगदम्बा अब तूही यमराज को छुडा सकती है।
माता जगदम्बा प्रगटी और बोली :–
-हे! बेटी जिस नाग को तूने कमंडल में बंद किया है वह स्वयं यमराज हैं उनके बिना यम लोक के सारे कार्य रुक गये हैं ।
-हे पुत्री यमराज को आजाद करदे ।
माता के आदेश का पालन करते हुए दुल्हन ने कमंडल से यम राज को आजाद कर दिया।
यमराज कमंडल से बाहर आये ।
माता को तथा दुल्हन के सतीत्व को प्रणाम किया ।माता की आज्ञा से यमराज ने उसके पती के प्राण वापस कर दिये ।
तथा चिरंजीवी रहने का बरदान दिया, और उसे चिरंजीव कहके पुकारा।
तब से लडके के नाम के आगे चिरंजीव लिखने की पृथा चली ।

आयुषमती :

राजा आकाश धर के कोई सन्तान नही थी ।
नारद जी ने कहा :– सोने के हल से धरती का दोहन करके उस भूमि पे यज्ञ करो सन्तान जरूर प्राप्त होगी ।
राजा ने सोने के हल से पृथ्वी जोती, जोतते समय उन्हें भूमि से कन्या प्राप्त हुई ।कन्या को महल लेकर आये।
राजा देखते है :- महल में एक शेर खडा है जो कन्या को खाना चाहता है, डर के कारण राजा के हाथ से कन्या छूट गई शेर ने कन्या को मुख में धर लिया, कन्या को मुख में धरते ही शेर कमल पुष्प में परिवर्तित हो गया, उसी समय विष्णु जी प्रगटे और कमल को अपने हाथ से स्पर्स किया। स्पर्श करते ही कमल पुष्प उसी समय यमराज बनकर प्रगट हुआ ,और वो कन्या पच्चीस वर्ष की युवती हो गई।
राजा ने उस कन्या का विवाह विष्णु जी से कर दिया । यमराज ने उसे आयुषमती कहके पुकारा और आयुषमती का बरदान दिया तब से विवाह मे पत्र पे कन्या के नाम के आगे आयुषमती लिखा जाने लगा।
।। जय माता की ।।

Monday 9 January 2017

सात शरीर,सात जगत और सात चक्र

आत्मा के सात शरीर होते हैं और जिन जिन परमाणुओं से वे सातों शरीर निर्मित होते हैं,उन्ही-उन्ही परमाणुओं से सात लोकों का भी निर्माण हुआ है जो निम्न लिखित हैं-

1. *स्थूल परमाणु* (physical atom) से स्थूल शरीर(physical body)की रचना होती है और वह स्थूल जगत(physical world) में इसी शरीर से रहती है। इसी प्रकार सभी परमाणु, सभी शरीर और सभी लोकों को समझना चाहिए।----
1 *स्थूल या भौतिक या पार्थिव*(physical)
2. *वासना या प्रेत* (ether)
3. *सूक्ष्म या प्राण*(astral)
4. *मनोमय*(mental)
5. *आत्म*(spiritual)
6. *ब्रह्म* (cosmic)
7.  *निर्वाण*(bodiless)।

इन  सातों लोकों से मनुष्य के सातों शरीरों  का सम्बन्ध होता है जिनके प्रवेश द्वारा मानव शरीर में सात चक्र के रूप में विद्यमान होते हैं। ये चक्र प्रवेश के द्वार होने के साथ साथ शक्ति के केंद्र और पदार्थों के केंद्र भी होते हैं।

1. *भौतिक शरीर और भौतिक जगत* का सम्बन्ध पृथ्वी तत्त्व से होता है जिसका आधार है--मूलाधार चक्र। शरीर में इसकी स्थिति मेरुदण्ड के निचले सिरे पर है।

2. *वासना शरीर और वासना लोक(प्रेत शरीर)* का सम्बन्ध शरीरस्थित लिंगमूल के निकट स्वाधिष्ठान चक्र से होता है। इस चक्र में जल तत्व है।

3. *सूक्ष्म शरीर और सूक्ष्म जगत* का सम्बन्ध नाभि स्थित मणिपूरक चक्र से है । इसमें अग्नि तत्व है।

4. *मनोमय शरीर और मनोमय जगत* का शरीरस्थित ह्रदय सेसंबंध है।यहाँ अनाहत चक्र होता है और इसका वायु तत्व से सम्बन्ध है।

5. *पांचवां शरीर और पांचवां लोक है-आत्मलोक*। इसका सम्बन्ध आकाश तत्व से होता है। इसका शरीर में कंठ स्थित विशुद्ध चक्र से सम्बन्ध है।

6. *छठा शरीर ब्रह्म शरीर है और छठा जगत है ब्रह्म जगत*। यहाँ तक आते आते सारे तत्व और पदार्थों का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इस शरीर और इस लोक का सम्बन्ध है आज्ञाचक्र से। यह चक्र दोनों भौंह के मध्य है और इसीको तीसरा नेत्र भी कहते हैं।

7. *सातवां शरीर है निर्वाण शरीर और सातवां लोक है निर्वाण जगत* । इसका स्थान है सहस्रार स्थित ब्रह्मरंध्र।इसीमें एक विशेष प्रकार का द्रव विद्यमान जिसका आधुनिक विज्ञान आजतक पता नहीं लगा सका है। यहीं पर परम तत्व शिव के स्वरुप में विद्यमान है।

एक सरल साधना

एक सरल साधना जिसे रोज़ करके आप धीरे धीरे ध्यान को स्थिर कर सकते हैं। ये प्रक्रिया आपको रोज़ सोने से पहले करनी है।

प्रश्न : सद्‌गुरु, मैं अपनी एकाग्रता को लेकर बहुत परेशान रहता हूं। मेरा ध्यान आसानी से भटक जाता है। मैं अपना ध्यान एक दिशा में कैसे केंद्रित करूं?

सद्‌गुरु : किसी खास दिशा में ध्यान स्थिर रखने के लिए सबसे पहले उन सभी गलत और मिथ्या धारणाओं को खत्म करना होगा, जो हमारे भीतर बनी हुई हैं। इसका मतलब हुआ कि अपने हर विश्वास को उठाकर एक तरफ रख दीजिए। आप कहेंगे कि आपके विश्वास सामाजिक जीवन के लिए उपयोगी हैं। ठीक है।
एक आत्म-ज्ञानी और एक मूर्ख में बस इतना ही अंतर होता है कि ज्ञानी व्यक्ति जानता है कि वह मूर्ख है, जबकि मूर्ख यह नहीं जानता कि वह मूर्ख है।
लोगों के बीच रहने के लिए कुछ लेन-देन करना पड़ता है, उसके लिए आपको कुछ चीजों पर विश्वास करना होता है, यहां तक तो ठीक है। लेकिन इसके अलावा अपनी हर धारणा को कम कीजिए। जब आप अपने विश्वास व धारणाओं को अलग रख देते हैं तो आपको ऐसा लगेगा कि आप भोंदू या निपट मूर्ख हैं। अगर आपको ऐसा लगता है तो बहुत अच्छा है। यह जानना बहुत अच्छा है कि आप एक निपट मूर्ख हैं। एक आत्म-ज्ञानी और एक मूर्ख में बस इतना ही अंतर होता है कि ज्ञानी व्यक्ति जानता है कि वह मूर्ख है, जबकि मूर्ख यह नहीं जानता कि वह मूर्ख है। बस यही एक बड़ा अंतर है और यह जमीन आसमान का अंतर है। लोगों की समस्या सिर्फ इतनी है कि उनको पता ही नहीं होता कि वे किस जाल में फंसे हैं। अगर उन्हें पता होता तो क्या वे उसमें फं से रहना चाहते? वे बिल्कुल वहां नहीं रहना चाहते।

सरल ध्यान प्रक्रिया
सिर्फ इतना कीजिए कि आज रात जब आप सोने जाइए तो उससे पहले आप बिस्तर पर बैठ कर मानसिक तौर पर हर वो चीज उठाकर एक तरफ रख दीजिए, जो आप नहीं हैं। अपने से जुड़ी हर चीज, जैसे अपनी जाति, अपना धर्म, अपनी राष्ट्रीयता, अपना शरीर, अपना मन, अपना विचार, अपनी भावनाएं, अपनी सोच, अपना दर्शन, अपने भगवान, अपना शैतान, यानी हर चीज को खुद से अलग करें और बस सो जाएं।
सिर्फ इतना करने की जरूरत है कि आपको अपना ध्यान 'जो आपने अब तक इकठ्ठा किया हुआ है' उससे हटाकर 'जो आप वास्तव में हैं' उस पर लगाना है।
यह काम रोज कीजिए, आपको अनुभव हो जाएगा। सिर्फ सोना है, इससे आसान तरीका मैं आपको नहीं दे सकता। बस आप ऐसे ही सो जाएं – जीवन के एक अंश के रूप में बस ऐसे ही सो जाइए, न एक स्त्री के रूप में, न एक पुरुष के रूप में, न इस रूप में न उस रूप में, बस सामान्य रूप से सो जाइए। दरअसल, जब आप सोते हैं तो आप ऐसे ही होते हैं। मैं ये कहना चाहता हूं कि आप जब नींद में प्रवेश करें तब भी आप ऐसे ही रहें। इसके लिए आपको इतना करना है कि जो आपकी स्वाभाविक स्थिति नींद में होने वाली है, वही स्थिति आप सोने से सिर्फ कुछ मिनट पहले तैयार कीजिए। आप देखेंगे कि इसमें कुछ मेहनत लगेगी, लेकिन आप इसे कीजिए। वैसे भी जब आप नींद में होते हैं तो आपके सोने का न कोई चाइनीज तरीका होता है न अंग्रेजी तरीका। आप अंग्रेजी या फ्रेंच में नहीं सोते हैं। जब आप सोते हैं तो ऐसे कि मानो आप कुछ हैं ही नहीं। आप उसी तरह से 'कुछ हैं ही नहीं' के अंदाज में नींद के करीब जाइए। जैसा मैंने कहा इस काम में कुछ मेहनत लगेगी, लेकिन इसे आज से ही करना शुरू कर दीजिए, क्योंकि कल के बारे में कौन जानता है?

कल का कुछ नहीं पता
किसे पता है कि कल आप उठेंगे या नहीं? लाखों लोग कल सुबह का सूरज नहीं देखेंगे, क्योंकि उनकी जिंदगी आज ही खत्म हो जाएगी। इसकी क्या गारंटी है कि उन लाखों लोगों में मैं या आप नहीं होंगे? हालांकि हम लोग अपने बारे में ऐसा नहीं सोचते, लेकिन ऐसा होना संभव है।
नींद में जाना – यानी आपको अगले कुछ घंटों के लिए मरना है। बहरहाल, हम अगले जन्म में विश्वास करते हैं।

कल की सुबह एक नया जन्म है। है कि नहीं?
हालांकि हम नहीं चाहते कि ऐसा कुछ हो, लेकिन ऐसा हो भी सकता है। लेकिन मौत एक ऐसी चीज है, जो हमेशा दूसरों के साथ घटित होती है। दूसरे लोग मरेंगे, हम और आप कहां मरेंगे? नहीं-नहीं दूसरे लोग मरेंगे। नहीं, मैं और आप मरेंगे। हर दिन आप नींद में ऐसे जाते हैं, जैसे मृत्यु के पास जा रहे हों। नींद में जाना – यानी आपको अगले कुछ घंटों के लिए मरना है। बहरहाल, हम अगले जन्म में विश्वास करते हैं। कल की सुबह एक नया जन्म है। है कि नहीं? आप नींद में बिलकुल मरे हुए इंसान के समान थे। जी हां, जहां तक 'आप' की बात है तो 'आप' मर चुके थे। आपके अनुभव में यह दुनिया मर चुकी थी। उसके बाद आप सुबह उठे। क्या यह पुनर्जीवन नहीं है। यह एक नया जीवन है।

इकठ्ठा किये हुए सामान को एक तरफ रखें
तो आज की रात भी आप मौत की तरफ जाएंगे। यह मैं कोई भ्रम पैदा करने के लिए नहीं कह रहा हूं। चलिए सब ठीक है, ऐसा कुछ भी नहीं है। आपके शरीर का, मन का, विचारों का, भावनाओं का कोई मतलब नहीं है।
बस आप ऐसे ही सो जाएं – जीवन के एक अंश के रूप में बस ऐसे ही सो जाइए, न एक स्त्री के रूप में, न एक पुरुष के रूप में, न इस रूप में न उस रूप में, बस सामान्य रूप से सो जाइए।
आपने जितनी भी पहचान अपने ऊपर थोपी हुई हैं, उन सबका कोई मतलब नहीं है। आप बिस्तर पर जाने से पहले उन सबको एक तरफ रख दीजिए और फि र इस तरह सोने जाइए कि मानो कुछ है ही नहीं। कुछ विचार आते रहेंगे, उन्हें अनदेखा कर दीजिए, वैसे भी वे आपके नहीं हैं। सिर्फ लेट जाइए। सिर्फ इतना करने की जरूरत है कि आपको अपना ध्यान 'जो आपने अब तक इकठ्ठा किया हुआ है' उससे हटाकर 'जो आप वास्तव में हैं' उस पर लगाना है। यही आपको सही दिशा देगा। इसके लिए आपको स्वर्ग की ओर देखने की कोई जरूरत नहीं है।

अर्धसत्य से बचें

एक नाविक तीन साल से एक ही जहाज पर काम कर रहा था । एक दिन नाविक रात में नशे में धुत हो गया । ऐसा पहली बार हुआ था । कैप्टन ने इस घटना को रजिस्टर में इस तरह दर्ज किया, "नाविक आज रात नशे मेँ धुत था ।"
नाविक ने यह बात पढ़ ली । नाविक जानता था कि इस एक वाक्य से उसकी नौकरी पर बहुत बुरा असर पड़ेगा । इसलिए वह कैप्टन के पास गया, माफी मांगी और कैप्टन से कहा कि उसने जो कुछ भी लिखा है, उसमे आप ये जोड़ दीजिये कि ऐसा तीन
साल में पहली बार हूआ है, क्योंकि पूरी सच्चाई यही है।
कैप्टन ने उसकी बात से साफ इंकार कर दिया और कहा,-" कि मैेने जो कुछ भी रजिस्टर मेँ दर्ज किया है, वही सच है।"
कुछ दिनों बाद नाविक की रजिस्टर भरने की बारी आयी। उसनेँ रजिस्टर मेँ लिखा-" आज की रात कैप्टन ने शराब नही पी है।" कैप्टन ने इसे पढ़ा और नाविक से कहा कि इस वाक्य को आप या तो बदल दे अथवा पूरी बात लिखने के लिए आगे कुछ और लिखें क्योँकि जो लिखा गया था, उससे जाहिर होता था कि कैप्टन हर रोज रात को शराब पीता था। नाविक ने कैप्टन से कहा कि उसने जो कुछ भी रजिस्टर मेँ लिखा है, वही सच है।
दोनो बातें सही हैँ, लेकिन दोनो से जो संदेश
मिलता है, वह झूठ के सामान है।
मित्रों इस काहनी से हम दो बातें सीखने को मिलती है, पहली – हमें कभी इस तरह की बात नहीं करी चाहिए जो सही होते हुए भी गलत सन्देश दे और दूसरी किसी बात को सुनकर उस पर अपना विचार बनाने या प्रतिक्रिया देने से पहले एक बार सोच लेना चाहिए कि कहीं इस बात का कोई और पहलू तो नहीं है । संक्षेप में कहें तो हमे अर्धसत्य से बचना चाहिए ।

वात्सल्य विद्यालय


चन्दन के कोयले न बनाओ

सुनसान जंगल में एक लकड़हारे से पानी का लोटा पीकर प्रसन्न हुआ राजा कहने लगा― हे पानी पिलाने वाले ! किसी दिन मेरी राजधानी में अवश्य आना, मैं तुम्हें पुरस्कार दूँगा, लकड़हारे ने कहा―बहुत अच्छा।
इस घटना को घटे पर्याप्त समय व्यतीत हो गया, अन्ततः लकड़हारा एक दिन चलता-फिरता राजधानी में जा पहुँचा और राजा के पास जाकर कहने लगा― मैं वही लकड़हारा हूँ, जिसने आपको पानी पिलाया था, राजा ने उसे देखा और अत्यन्त प्रसन्नता से अपने पास बिठाकर सोचने लगा कि-  इस निर्धन का दुःख कैसे दूर करुँ ? अन्ततः उसने सोच-विचार के पश्चात् चन्दन का एक विशाल उद्यान(बाग) उसको सौंप दिया। लकड़हारा भी मन में प्रसन्न हो गया। चलो अच्छा हुआ। इस बाग के वृक्षों के कोयले खूब होंगे, जीवन कट जाएगा।
यह सोचकर लकड़हारा प्रतिदिन चन्दन काट-काटकर कोयले बनाने लगा और उन्हें बेचकर अपना पेट पालने लगा। थोड़े समय में ही चन्दन का सुन्दर बगीचा एक वीरान बन गया, जिसमें स्थान-स्थान पर कोयले के ढेर लगे थे। इसमें अब केवल कुछ ही वृक्ष रह गये थे, जो लकड़हारे के लिए छाया का काम देते थे।
राजा को एक दिन यूँ ही विचार आया। चलो, तनिक लकड़हारे का हाल देख आएँ। चन्दन के उद्यान का भ्रमण भी हो जाएगा। यह सोचकर राजा चन्दन के उद्यान की और जा निकला। उसने दूर से उद्यान से धुआँ उठते देखा। निकट आने पर ज्ञात हुआ कि चन्दन जल रहा है और लकड़हारा पास खड़ा है। दूर से राजा को आते देखकर लकड़हारा उसके स्वागत के लिए आगे बढ़ा। राजा ने आते ही कहा― भाई ! यह तूने क्या किया ? लकड़हारा बोला― आपकी कृपा से इतना समय आराम से कट गया। आपने यह उद्यान देकर मेरा बड़ा कल्याण किया। कोयला बना-बनाकर बेचता रहा हूँ। अब तो कुछ ही वृक्ष रह गये हैं। यदि कोई और उद्यान मिल जाए तो शेष जीवन भी व्यतीत हो जाए।
राजा मुस्कुराया और कहा― अच्छा, मैं यहाँ खड़ा होता हूँ। तुम कोयला नहीं, प्रत्युत इस लकड़ी को ले-जाकर बाजार में बेच आओ। लकड़हारे ने दो गज [लगभग पौने दो मीटर] की लकड़ी उठाई और बाजार में ले गया। लोग चन्दन देखकर दौड़े और अन्ततः उसे तीन सौ रुपये मिल गये, जो कोयले से कई गुना ज्यादा थे।
लकड़हारा मूल्य लेकर रोता हुआ राजा के पास आय और जोर-जोर से रोता हुआ अपनी भाग्यहीनता स्वीकार करने लगा।
*इस कथा में चन्दन का बाग मनुष्य का शरीर और हमारा एक-एक श्वास चन्दन के वृक्ष हैं पर अज्ञानता वश हम इन चन्दन को कोयले में तब्दील कर रहे हैं। लोगों के साथ बैर, द्वेष, क्रोध, लालच, ईर्ष्या, मनमुटाव, को लेकर खिंच-तान आदि की अग्नि में हम इस जीवन रूपी चन्दन को जला रहे हैं। जब अंत में स्वास रूपी चन्दन के पेड़ कम रह जायेंगे तब अहसास होगा कि व्यर्थ ही अनमोल चन्दन को इन तुच्छ कारणों से हम दो कौड़ी के कोयले में बदल रहे थे, पर अभी भी देर नहीं हुई है हमारे पास जो भी चन्दन के पेड़ बचे है उन्ही से नए पेड़ बन सकते हैं। आपसी प्रेम, सहायता, सौहार्द, शांति,भाईचारा, और विश्वास, के द्वारा अभी भी जीवन सँवारा जा सकता है।

तुलसी कौन थी?

तुलसी(पौधा) पूर्व जन्म मे एक लड़की थी जिस का नाम वृंदा था, राक्षस कुल में उसका जन्म हुआ था बचपन से ही भगवान विष्णु की भक्त थी.बड़े ही प्रेम से भगवान की सेवा, पूजा किया करती थी.जब वह बड़ी हुई तो उनका विवाह राक्षस कुल में दानव राज जलंधर से हो गया। जलंधर समुद्र से उत्पन्न हुआ था.
वृंदा बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी सदा अपने पति की सेवा किया करती थी.
एक बार देवताओ और दानवों में युद्ध हुआ जब जलंधर युद्ध पर जाने लगे तो वृंदा ने कहा -
स्वामी आप युद्ध पर जा रहे है आप जब तक युद्ध में रहेगे में पूजा में बैठ कर आपकी जीत के लिये अनुष्ठान करुगी,और जब तक आप वापस नहीं आ जाते, मैं अपना संकल्प
नही छोडूगी। जलंधर तो युद्ध में चले गये,और वृंदा व्रत का संकल्प लेकर पूजा में बैठ गयी, उनके व्रत के प्रभाव से देवता भी जलंधर को ना जीत सके, सारे देवता जब हारने लगे तो विष्णु जी के पास गये।
सबने भगवान से प्रार्थना की तो भगवान कहने लगे कि – वृंदा मेरी परम भक्त है में उसके साथ छल नहीं कर सकता ।
फिर देवता बोले - भगवान दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं है अब आप ही हमारी मदद कर सकते है।
भगवान ने जलंधर का ही रूप रखा और वृंदा के महल में पँहुच गये जैसे
ही वृंदा ने अपने पति को देखा, वे तुरंत पूजा मे से उठ गई और उनके चरणों को छू लिए,जैसे ही उनका संकल्प टूटा, युद्ध में देवताओ ने जलंधर को मार दिया और उसका सिर काट कर अलग कर दिया,उनका सिर वृंदा के महल में गिरा जब वृंदा ने देखा कि मेरे पति का सिर तो कटा पडा है तो फिर ये जो मेरे सामने खड़े है ये कौन है?
उन्होंने पूँछा - आप कौन हो जिसका स्पर्श मैने किया, तब भगवान अपने रूप में आ गये पर वे कुछ ना बोल सके,वृंदा सारी बात समझ गई, उन्होंने भगवान को श्राप दे दिया आप पत्थर के हो जाओ, और भगवान तुंरत पत्थर के हो गये।
सभी देवता हाहाकार करने लगे लक्ष्मी जी रोने लगे और प्रार्थना करने लगे यब वृंदा जी ने भगवान को वापस वैसा ही कर दिया और अपने पति का सिर लेकर वे
सती हो गयी।
उनकी राख से एक पौधा निकला तब
भगवान विष्णु जी ने कहा –आज से
इनका नाम तुलसी है, और मेरा एक रूप इस पत्थर के रूप में रहेगा जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जायेगा और में
बिना तुलसी जी के भोग
स्वीकार नहीं करुगा। तब से तुलसी जी कि पूजा सभी करने लगे। और तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी के साथ कार्तिक मास में
किया जाता है.देव-उठावनी एकादशी के दिन इसे तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है !
इस कथा को कम से कम दो लोगों को अवश्य सुनाए आप को पुण्य  अवश्य मिलेगा।  या चार ग्रुप मे प्रेषित करें।

सम्बन्ध को जोड़ना एक कला है..

✍ *सम्बन्ध को जोड़ना*
*एक कला है,*
*लेकिन*
*"सम्बन्ध को निभाना"*
*एक साधना है*
*जिंदगी मे हम कितने सही और कितने गलत है, ये सिर्फ दो ही शक्स जानते है..*
*"ईश्वर "और अपनी "अंतरआत्मा"*
*और हैरानी की बात है कि दोनों नजर नहीं आते...!*

आपकी मुस्कुराहट आपके चेहरे पर भगवान के हस्ताक्षर हैं..

आपकी मुस्कुराहट आपके चेहरे 
पर भगवान के हस्ताक्षर हैं,
उसको क्रोध करके मिटाने की अथवा 
आँसुओं से धोने की कोशिश न करे।"
जीवन में कभी किसी से अपनी 
तुलना मत करो, आप जैसे हैं, 
सर्वश्रेष्ठ हैं, ईश्वर की हर 
रचना अपने आप में 
सब से उत्तम है,
अदभुत है

वक्त तो रेत है...

*वक्त तो रेत है*
*फिसलता ही जायेगा*
*जीवन एक कारवां है*
*चलता चला जायेगा*
*मिलेंगे कुछ खास*
*इस रिश्ते के दरमियां*
*थाम लेना उन्हें वरना*
*कोई लौट के न आयेगा*